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सब बेकार…

आज अचानक घंटो चाँद को निहारा
तो लगा कुछ तो अलग है
चाँद भी वही और चांदनी भी वही
पर फिर भी लगा कुछ तो अलग है

छत के उस कोने से सटकर
कई बार कोशिश की
कि कलम उठा इस बेचैनी को
उस कागज़ पे खर्च करूँ

पर सब बेकार ,

दवात में से जो स्याही उधार ली थी
कलम की नोक से चिपककर सूख चुकी है
बिलकुल मेरे ख्यालो की तरह
जो जड़ हैं, बिलकुल अडिग

चाँद अपनी चांदनी पे इतराता है
मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ,
सब पीछे छूट जाता है

आजकल खामोश हूँ ,मैं भी और वो भी
कुछ कहता नहीं हूँ , मैं भी और वो भी
इशारो में कुछ कहना चाहते हैं कभी
पर नज़रअंदाज करता हूँ , मैं भी और वो भी

सूरज की किरणों से सन्नाटा टूटता है
एक नयी सुबह से सरोकार होता है
छिप जाता हूँ उस तकिये की आड़ में
फिर उस मासूम चाँद के इंतज़ार में

आज अचानक घंटो चाँद को निहारा
तो लगा कुछ तो अलग है
चाँद भी वही और चांदनी भी वही
पर फिर भी लगा कुछ तो अलग है

– उत्कर्ष “बेसुध” पाण्डेय
6/10/2014, 5:30 am

P.S.: So, this is the second guest post on the blog this year. I actually didn’t want to add anything after this wonderful poem, but then I have to tell you guys a little more about this incredible poet. After my myriad unsuccessful attempts at encouraging him to create his own blog, I decided to publish his latest poem on my blog. I hope the comments he gets for this post would motivate him to maintain his own blog. Connect with him here